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“जनजातीय क्षेत्रों के किसानों के सशक्तिकरण” पर राष्ट्रीय कार्यशाला

केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री श्री राधा मोहन सिंह ने कहा है कि सदियों से जनजातियों ने कृषि जैव-विविधता बनाने एवं संरक्षण में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विगत तीन वर्षो में जनजातीय किसानों द्वारा कुल 5000 से अधिक प्रजातियों के पंजीयन हेतु कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से भारत सरकार की संस्था पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण को आवेदन किया गया है जो कि भविष्य में जलवायु अनुकूल प्रजाति के विकास में निर्णायक भूमिका अदा करेगी।

केंद्रीय कृषि मंत्री ने यह बात आज नई दिल्ली में “जनजातीय क्षेत्रों के किसानों के सशक्तिकरण” पर आयोजित राष्ट्रीय कार्यशाला में कही। केंद्रीय कृषि मंत्री ने कहा कि कृषि के क्षेत्र में जनजातियों का यदि उत्थान करना है तो कृषि के नये-नये आयामों को इनके खेतों तक पहुंचाना पड़ेगा, साथ ही साथ इस बात का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हम इन क्षेत्रों को प्रकृति की धरोहर मान कर जैविक एवं नैसर्गिक खेती की ओर अग्रसर करें।

इन क्षेत्रों में हमें मोटे अनाज, दलहन, तिलहन, फल, फूल, सब्जियों के नये बीज व प्रजातियों को प्रतिस्थापित करना होगा, साथ ही साथ समेकित प्रबंधन, वर्षा आधारित कृषि की नवीन तकनीक, जल संरक्षण की उचित व्यवस्था के साथ-साथ सिंचाई की नवीन तकनीक, नवीन कृषि यंत्रों, पंक्ति बुआई पद्धति आदि अपनाना होगा। साथ ही साथ एकीकृत फसल प्रणाली, एकीकृत फार्मिंग सिस्टम माड्यूल पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

केंद्रीय कृषि मंत्री ने बताया कि पूरे देश मे 673 कृषि विज्ञान केन्द्र है, जिनमे से 125 जनजातीय बाहुल्य वाले क्षे़त्रों में कार्य कर रहे हैं। स्थापित संस्थानों व केन्द्रों पर होने वाले व्यय के अतिरिक्त प्रतिवर्ष भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा विशिष्ट कार्यों हेतु लगभग 75 से 100 करोड़ रूपये स्वीकृत किये जाते हैं जिससे विभिन्न प्रकार की परियोजनाएं सुचारू रूप से कार्यरत रहें।

केंद्रीय कृषि मंत्री ने कहा कि कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा मशरूम, मछली पालन, मुर्गी पालन (बैकयार्ड पोल्ट्री), देशी प्रजातियों के चूजों की समुचित व्यवस्था, सूकर पालन, मधुमक्खी पालन आदि उपलब्ध कराई जा रही है जो सीमित संसाधनों के बावजूद जनजातियों के आय को 2022 तक दुगनी करने में सहायक सिद्ध हो पायेगा।

इन क्षेत्रों में ऐसी-ऐसी फसलें आज भी विद्यमान हैं जैसे-नाईजर, तिल, मोटे अनाज; कोदो, काकुन, कुटरी, रागी इत्यादि जो औषधीय गुणों वाली होने के साथ-साथ काफी उच्च गुणवत्ता वाली हैं। इन क्षेत्रों में दलहन व मक्का मुख्य रूप से उगायी जाती है व इनकी उत्पादकता बढ़ाने के तमाम अवसर हमारे पास हैं। श्री सिंह ने बताया कि जनजातियों द्वारा अनाज भंडारण एवं ग्रामीण स्तर पर प्रसंस्करण की विधियाँ भी काफी प्रचलित एवं महत्वपूर्ण हैं जिनको वैज्ञानिक अध्ययन के बाद अन्य क्षेत्रों में भी फैलाया जाना लाभदायक सिद्ध हो रहा है।

केंद्रीय कृषि मंत्री ने बताया कि विभिन्न पहलुओं को देखते हुए यह बात महत्वपूर्ण है कि जनजातीय युवाओं के लिए शिक्षा का पाठयक्रम एवं संरचना ऐसा बनाया जाये कि उनके व्यावहारिक ज्ञान को डिग्री या डिप्लोमा का रूप देकर इनकी दक्षता सुधार की जाये जैसे- कपड़े, आभूषण, मेटल क्राफ्ट, बाँस का उत्पाद, बर्तन बनाना इत्यादि जिससे इन जनजातियों का उत्पाद अधिक मात्रा मे बाजार को आये एवं बाजार से अधिक पैसे का प्रवाह इन इलाकों में हो सके।

Source: http://pib.nic.in/



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